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शनिवार, 8 अप्रैल 2017

आत्म मंथन

जब एक औरत की कल्पना हम करते हैं तो हमारे दिमाग में हमेशा होता हैं एक बेचारी, चुपचाप किसी कोने में खड़ी अपने तमाम रिश्तों के बोझ तले दबी एक छाया, जिसका अपना कोई वजूद नहीं. कभी बेटी, कभी बहन तो कभी पत्नी और फिर माँ, चाची, मौसी, दादी और नानी के रूप में अपने कर्त्तव्य का भलीभांति निर्वहन करती रही शिकायत कभी न करे. आवाज़ होकर भी बेजुबान रहे. ग़लतियों को देखकर भी चुपचाप रहे. समझ कर भी नासमझ बनी रहे. देख कर भी अनदेखा कर दे. लेकिन हम ये कल्पना क्यों नहीं कर सकते कि जो सृजन करती हैं वो विकास भी कर सकती हैं और अगर उसकी सोच भटक जाए तो उसके लिए विनाश भी कोई बड़ी चीज़ नहीं हैं. पर हमारे समाज की विडंबना ही कही कही जायेगी कि वह विनाश तो चाहता हैं पर विकास नहीं. हम अपनी जिस ऊर्जा को विनाश लीला की रूपरेखा तैयार करने में लगा देते हैं अगर उसी ऊर्जा को विकास के लिये लगाया जाए तो हमारी सोच, हमारा समाज और सबके साथ हम विकास और विचार की गई उचाईयों को छु सकते हैं. मैं इन सबके लिए सिर्फ पुरुष समाज को ज़िम्मेदार नहीं मानती, इसके लिए अगर सच में कोई ज़िम्मेदार है तो वह हैं औरत क्योंकि वो माँ हैं. अगर जन्मदात्री ही अपने संतान के हक़ की रक्षा न कर पाए और उसके विरोध में खड़ी हो जाए तो फिर पहली लड़ाई तो वह बच्चा पहले दिन ही हार गया. ख़ैर ये बात बहुत लंबी हो सकती लेकिन मैं इस कहानी के माध्यम से समाज में पसरी हुई उस बीमारी की ओर ध्यान दिलाना चाहती हूँ जहां हम चाँद पर तो पहुंच गए हैं. पुरुष और महिला को बराबर में खड़े करने के लिए तमाम कानून भी बना दिये लेकिन हम अपने मन में पुरुष और महिला को बराबरी का दर्जा आखिर कब दे पाएंगे. आज हमें इसके लिए आत्ममंथन की सख़्त ज़रुरत हैं.....

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